रोमांस
- मंजुल भारद्वाज
व्यक्तिगत रोमांस में
लब सिल जाते हैं
शर्म-ओ- हया की चादर
सारे जिस्म को ढक लेती है
दो जिस्म एकाकार हो जाते हैं
एक रूहानी सृजन के लिए
देश से रोमांस में लब खुल जाते हैं
शरीर क़ुर्बानी के लिए तैयार होता है
साँसों में क्रांति का सरगम
लबों पर क्रांति गीत सजते हैं
दूर तक कारवां सजता है
संघर्ष में चलते कदम
अपने लहू से सजाते हैं
आज़ादी का गुलिस्तान
चमन में सदियों तक
मुस्कुराते फूलों के खिलने के लिए!
.......
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