तेरा चूल्हा जलता रहे !
Saturday, December 31, 2022
तेरा चूल्हा जलता रहे ! -मंजुल भारद्वाज
पैसा और अर्थ -मंजुल भारद्वाज
पैसा और अर्थ
संत माफ़ करें ! -मंजुल भारद्वाज
संत माफ़ करें !
Monday, December 26, 2022
जुस्तजू - मंजुल भारद्वाज
जुस्तजू
- मंजुल भारद्वाज
मेरे कोहरे को छांटती
हल्की धूप हो तुम !
पलकों से झरती
मर्म की शबनम हो तुम !
मेरी जुस्तजू
मेरे ख्वाबों की ताबीर हो तुम !
स्पर्श - मंजुल भारद्वाज
स्पर्श
- मंजुल भारद्वाज
प्रकृति कैसे अपने आप को
हमारे अंदर स्पंदित करती है
कैसे मनुष्य के अंदर
स्वयं का सृजन करती है
जिस व्यक्ति में प्रकृति ज़िंदा है
बस वही व्यक्ति ज़िंदा है
जिसके अंदर प्रकृति मर जाती है
वो शरीर सिर्फ़ ज़िंदा लाश होता है
ढोता हुआ अपनी मृत देह को
आज समाज विकार से अभिशप्त है
प्रकृति का गला घोंटकर
विनाश,विध्वंस,प्रलय का सिरमौर है
ताक़त के गुरुर से कठोर हुआ
कठोर से दुष्ट,धृष्ट बनते हुए
अपनी कठोरतम निर्ममता में दरक रहा है
अणुबम,मिसाइल,टैंक से तबाही के
जश्न में डूबा
सर्वशक्तिमान मनुष्य समाज
अपनी सख्ती से
हर पल टुकड़े टुकड़े हो बिखर रहा है
सिर्फ़ वर्चस्ववाद के लिए
वो ताक़त से जीतना चाहता है
स्वयं को
कितना मूर्ख है मनुष्य
स्वयं को बाहरी ताक़त से जीतना चाहता है
जबकि स्वयं को जीतने के लिए
स्वयं को स्वयं से हारना होता है
स्वयं की कठोरता को
कोमलता से हारना होता है
निर्ममता को ममता
सख्ती को नरमाई
कड़वेपन को मृदुता
बेदर्दी को हमदर्दी से हारना होता है
नफ़रत को प्रेम से परास्त होना होता है
स्वयं को जीतने के लिए
अपनी तरंगों को स्पंदित करने के लिए
शरीर को रूह से मिलाने के लिए
मनुष्य शरीर में
प्राणी शरीर में
प्रकृति ने स्पर्श का
प्राकृतिक वरदान दिया है समस्त प्राणियों को
स्पर्श : स्पंदन,रूह,शरीर
शरीर में रूहानियत
स्पंदित करने की प्रक्रिया है स्पर्श!
#स्पर्श #मंजुलभारद्वाज
Sunday, December 25, 2022
आब –ऐ-हयात - मंजुल भारद्वाज
आब –ऐ-हयात
- मंजुल भारद्वाज
कहीं भीतर अंधड़ उठता है
धुंधली धुंधली भाव मुद्राएं
उड़ती धूल के कैनवास पर उभरती हैं !
विरह के बीहड़ो में
उसके दीद का तसव्वुर
मीठा मीठा दर्द जगा जाता है !
दबे पाँव धुंधलके में
उसका अहसास सूखे हलक में
आब - ऐ - हयात सा उतर जाता है !
कहीं साफ़ साफ़ दिखने वाले मंजरों से
यह धुंधलका बड़ा अच्छा है
निराशा में एक आस जगाता है !
एक सीप सा मैं ! - मंजुल भारद्वाज
एक सीप सा मैं !
- मंजुल भारद्वाज
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मैं एक सीप सा
तिरी एक बूंद मोहब्बत की आस लिए
अपने भीतर के
महासागर को पार कर
तिरी आँखों के समन्दर में डूब गया हूँ !
अथाह है तिरी आँखों की गहराई
कितने भंवर उठते हैं तिरी
आँखों के महासागर में
आँखों में बसे मुसाफ़िर को
पलको से बूंद सा
साहिल पे छोड़ जाते हैं !
तुझे ढूंढते – ढूंढते
तेरे साहिल की पनाह में
विरह अग्नि में तपता हुआ
पर्वत सा अटल मैं
चाहत की लहरों पर तैरता रहूंगा ताउम्र
तिरी एक बूंद मोहब्बत के लिए !
कभी फुर्सत मिले तो सोचना ! -मंजुल भारद्वाज
कभी फुर्सत मिले तो सोचना ! -मंजुल भारद्वाज तुम स्वयं एक सम्पति हो सम्पदा हो इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में कभी पिता की कभी भाई की कभी ...
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मनुष्य के अंदर धर्म कितना ज़हर भरता है वो इस ज़हर से मोहब्बत को मारता है प्रेम से बड़ा है वर्ण प्रेम के हत्यारे हैं जात और धर्म इंसानियत क...
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कभी फुर्सत मिले तो सोचना ! -मंजुल भारद्वाज तुम स्वयं एक सम्पति हो सम्पदा हो इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में कभी पिता की कभी भाई की कभी ...
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मी वेडेपणा शोधतो आहे…. - मंजुल भारद्वाज मला तुम्हाला वेडं करायचंय...., मी शोधतो आहे इतिहासात होता ...