मिलन का जश्न
-मंजुल भारद्वाज
लहरें इठलाती-मदमाती
अपने आशियां में लौट जाती हैं
किनारा वहीँ का वहीँ
प्रतीक्षारत रहता है
मिलन की हसरत लिए !
चाँद और वसुंधरा की अटखेलियाँ हैं
किनारे और लहर का विरह–मिलन
समंदर का ज्वार-भाटा
है सतत,निरंतर,अविरल !
कभी फुर्सत मिले तो सोचना ! -मंजुल भारद्वाज तुम स्वयं एक सम्पति हो सम्पदा हो इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में कभी पिता की कभी भाई की कभी ...
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