आब –ऐ-हयात
- मंजुल भारद्वाज
कहीं भीतर अंधड़ उठता है
धुंधली धुंधली भाव मुद्राएं
उड़ती धूल के कैनवास पर उभरती हैं !
विरह के बीहड़ो में
उसके दीद का तसव्वुर
मीठा मीठा दर्द जगा जाता है !
दबे पाँव धुंधलके में
उसका अहसास सूखे हलक में
आब - ऐ - हयात सा उतर जाता है !
कहीं साफ़ साफ़ दिखने वाले मंजरों से
यह धुंधलका बड़ा अच्छा है
निराशा में एक आस जगाता है !
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