ज़िंदगी
- मंजुल भारद्वाज
समय को बुनती हुई
धुन है ज़िंदगी
धुंध की चादर ओढ़े
अपना सहर खोजती हुई !
मर्मस्पर्शी स्मृतियां से
जुगनू सी रौशन ज़िंदगी
भविष्य के गर्भ में जा पैठती है
सूर्य का सृजन करती हुई !
भावों की गीली मिट्टी से
गढ़ती है अपना मानस
विवेक,विचार,मर्म से
संवरती है ज़िंदगी !
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