कला दृष्टिगत सृजन
राजनीति सत का कर्म!
-मंजुल भारद्वाज
राजनीति सत्ता,व्यवस्था की जड़ता को
तोड़ने का नीतिगत मार्ग
कला मनुष्य को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया
राजनीति मनुष्य के शोषण का मुक्ति मार्ग
कला अमूर्त का मूर्त रूप
राजनीति सत्ता का स्वरूप
कला सत्ता के ख़िलाफ़ विद्रोह
राजनीति विद्रोह का रचनात्मक संवाद
कला संवाद का सौन्दर्यशास्त्र
राजनीति व्यवस्था परिवर्तन का अस्त्र
कला और राजनीति एक दूसरे के पूरक
बाज़ार कला के सृजन को खरीदता है
सत्ता राजनीति के सत को दबाती है
जिसकी चेतना राजनीति से अनभिज्ञ हो
वो कलाकार नहीं
चाहे बाज़ार उसे सदी का महानायक बना दे
झूठा और प्रपंची सत्ताधीश चाहे
लोकतंत्र की कमजोरी, संख्याबल का फायदा उठाकर
देश का प्रधानमन्त्री बन जाए
पर वो राजनीतिज्ञ नहीं बनता
राजनीतिज्ञ सर्वसमावेशी होता है
सत उसका मर्म एवं संबल होता है
कलाकार पात्र के दर्द को जीता है
राजनीतिज्ञ जनता के दुःख दर्द को मिटाता है
कलाकार और राजनीतिज्ञ जनता की
संवेदनाओं से खेलते नहीं है
उसका समाधान करते हैं
कलाकार व्यक्ति के माध्यम से
समाज की चेतना जगाता है
राजनीति व्यवस्था का मंथन करती है
कला मंथन के विष को पीती है
राजनीति अमृत से व्यवस्था को
मानवीय बनाती है
कला एक मर्म
राजनीति एक नीतिगत चैतन्य
दोनों एक दूसरे के पूरक
जहाँ कला सिर्फ़ नाचने गाने तक सीमित हो
वहां नाचने गाने वाले जिस्मों को सत्ता
अपने दरबार में जयकारा लगाने के लिए पालती है
जहाँ राजनीति का सत विलुप्त हो
वहां झूठा,अहमक और अहंकारी सत्ताधीश होता है
जनता त्राहिमाम करती है
समाज में भय और देश में युद्धोउन्माद होता है
हर नीतिगत या संवैधानिक संस्था को ढाह दिया जाता है
इसलिए
कला दृष्टि सम्पन्न सृजन साधना है
और
राजनीति सत्ता का सत है
दृष्टि का सृष्टिगत स्वरूप है
दोनों काल को गढ़ने की प्रकिया
दोनों मनुष्य की ‘इंसानी’ प्रक्रिया!
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#कला #राजनीति #मंजुलभारद्वाज
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