टूटता,बिखरता,संवरता निज!
- मंजुल भारद्वाज
महान रंग चिंतन
प्राण न्यौछावर करती हुई
फ़ौलादी प्रतिबद्धता से बने
सांस लेते हुए पंचतत्वों में
एक अदना सा निज भी
साँस लेता है
जो ना जाने कितनी बार
वक्त से टकरा कर
टूटता है,बिखरता है
फ़िर संवरता है
बस इसका साक्षी
सिर्फ़ मैं हूँ
आधार है सृजनकार
अपने चैतन्य से आलोकित
कलात्मक साधना से
मानवीय विष को पीता हुआ
बेहतर इंसानी विश्व सृजन के लिए!
...
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