अर्थहीन होने का दौर
- मंजुल भारद्वाज
ये अर्थहीन होने का दौर है
‘जहाँ’ इमारतों का बोलबाला है
और ‘घर’ अर्थहीन है
ये अर्थहीन होने का दौर है
जहाँ संवाद माध्यमों की बाढ़ में
‘संवाद’ डूब रहा है
ये अर्थहीन होने का दौर है
‘जहाँ’ तकनीक का ज़ोर है
और ‘विज्ञान’ कमज़ोर है
ये अर्थहीन होने का दौर है
‘जहाँ’ धरती लुट रही है
और ‘मुनाफ़े’ का कोहराम है
ये अर्थहीन होने का दौर है
‘जहाँ’ हैवानियत बिकती है
और ‘इंसानियत’ बे ईमान है
ये अर्थहीन होने का दौर है
जहाँ ‘शोर’ फलफूल रहा है
और ‘मौन’ कुचला जा रहा है
ये अर्थहीन होने का दौर है
‘जहाँ’ झूठ का बोलबाला है
और ‘सत्यमेव जयते’ कहीं दुबक कर बैठा है
ये अर्थहीन होने का दौर है
‘जहाँ’ मीडिया की सनसनी ‘सत्य’ है
ब्रेकिंग न्यूज़ के हथोड़े से ‘सच’ का
सर फोड़ा जाता है
और ‘खामोश’ अदालतों में लम्बी कतार हैं
ये अर्थहीन होने का दौर है
जहाँ ‘खरीदो और बेचो’ की संस्कृति आबाद है
और ‘संस्कार,संस्कृति’ बर्बाद हैं
ये अर्थहीन होने का दौर है
‘जहाँ’ किसान आत्महत्या कर रहा है
बच्चे कुपोषित और महिलायें हिंसाग्रस्त
और बेरोजगार ‘युवाओं’ के हाथों में
‘राष्ट्रवाद’ का परचम फहरा रहा है
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