हरा था...
- मंजुल भारद्वाज
कतरा कतरा
लम्हा लम्हा
कहीं छुपी
खुशी समेट ले
बरसती आग में
बिना पत्तियों वाली
कंटीली झाड़ियों सा
जीना सीख ले !
नदियां पट गई
लाशों से
समंदर हो गया मरघट
एक बूंद की आस लिए
तपते रेगिस्तान में
रेत सा
जीना सीख ले !
हरा था
कट कर सूखी
लकड़ी हो गया
तेरी मुक्ति के लिए
स्वाह हो
सुपुर्द-ए-ख़ाक हो गया
खुद को रोशन कर
पेड़ सा
जीना सीख ले !
No comments:
Post a Comment