Saturday, May 21, 2022

हरा था... - मंजुल भारद्वाज

 हरा था...

- मंजुल भारद्वाज


कतरा कतरा 

लम्हा लम्हा

कहीं छुपी

हरा था...  - मंजुल भारद्वाज

खुशी समेट ले

बरसती आग में

बिना पत्तियों वाली

कंटीली झाड़ियों सा

जीना सीख ले !

नदियां पट गई 

लाशों से

समंदर हो गया मरघट

एक बूंद की आस लिए

तपते रेगिस्तान में

रेत सा 

जीना सीख ले !

हरा था

कट कर सूखी

लकड़ी हो गया

तेरी मुक्ति के लिए

स्वाह हो 

सुपुर्द-ए-ख़ाक हो गया

खुद को रोशन कर

पेड़ सा 

जीना सीख ले !


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