धर्म,जात और राष्ट्रवाद !
-मंजुल भारद्वाज
विश्व की अखंडता
समग्रता और विविधता का
समूल नाश करने का
जो मनुष्य के अविश्वास
अमूर्त और अनजान ख़तरों के
भय से जन्में भगवान पर
कब्ज़े का सुनियोजित कारोबार है !
कारोबार है आस्था का
पाखंड का
गुलामी का
अन्याय का
कर्मकांड का
जिसे चंद लुटेरे चलाते हैं !
यह लुटेरे तथाकथित भगवान के
महलों में रहते हैं
जिस दीन हीन के कल्याण करने का
ठेका लिया हुआ है
उन्हीं के चढ़ावे पर फलते फूलते है
लुटेरों के राज महल !
यह प्रचार करते हैं
सब एक हैं
ईश्वर एक है
जब सब एक हैं
तो कारोबार की अलग अलग दुकान क्यों ?
पर आस्था में अंधे भक्त कभी
यह सवाल नहीं पूछते
आखिर भक्त बनता वही है
जो तर्क बुद्धि खो देता है
तर्कहीन झुण्ड धर्म सत्ता के
पालक-पोषक हैं
यही शोषण के जन्मदाता हैं
यही सदियों से शोषित हैं !
भगवान और भक्त जन्म जन्मान्तर से
शोषण से मुक्ति का कभी ना खत्म होने वाला
षड्यंत्र मानवता के ख़िलाफ़ रच रहे हैं !
धर्म के बाद मनुष्यता को खत्म करने वाला
दीमक है जात
जात वर्णवाद का वाहक है
प्रकृति के समता और न्याय को
खत्म करने की साज़िश है वर्ण
आत्महीन,वर्चस्ववादी विकार है वर्ण
जिसने आज जात का घुन बनकर
सभी में मनुष्यता को नष्ट कर
एक भीड़ बना दिया है !
धर्म,जात का भौगोलिक वर्चस्ववाद
कहलाता है राष्ट्रवाद
यह तीनों की संवाहक है
तर्क,विवेकहीन भीड़
सत्ता का सत्य है भीड़
जो भीड़ को हांक सकता है
वही भीड़ पर राज करता है
और यही भीड़ भगदड़ में
एक दूसरे को मार कर
स्वयं मरती रहती है
यही दुनिया का सच है !
No comments:
Post a Comment