आपकी नज़र!
इश्क़ के ज़ेर-ओ-ज़बर
ज़माना मिटा ना सका
जितना मिटाया
इश्क़ और बढ़ा
दिल की इबारत पर लिखा
जिसने पढ़ा
वो जी गया
बाक़ी जिस्म का बोझ
ताउम्र ढ़ोते रहे
नफ़रत की हुकूमतों से कह दो
आशिक़ों की जमात
शमा परवाने की होती है
खुदको जला
दुनिया को रोशन करती है!
कभी फुर्सत मिले तो सोचना ! -मंजुल भारद्वाज तुम स्वयं एक सम्पति हो सम्पदा हो इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में कभी पिता की कभी भाई की कभी ...
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