Monday, February 27, 2023

गंगा -मंजुल भारद्वाज

 गंगा

-मंजुल भारद्वाज
सबसे बड़े प्यासे
उपजाऊ मैदान की प्यास बुझा
जीवन उगाती हो
सभ्यता सींचती हो
पर कैसी सभ्यता?
कपोल कल्पनाओं की किंवदंती
पाखंड,मिथ्या कर्मकांड को सहेजती
गंगा तुम वर्णवाद को पालती हो
जहाँ मनुष्यता खत्म हो जाती है !
शुरू होती है पशुता
गुलामी,भेद, छूत-अछूत का
रक्तपिपासु पाप-पुण्य का शोषण चक्र
प्रारब्ध का लेखा जोखा
पावन,पवित्र ,निर्मल तेरी धारा में
मिलता है वर्णवाद की चक्की में पिसते
अनंत जनों का लहू सदियों से !
हे गंगा तेरा चप्पा चप्पा
कर्मकांड का केंद्र है
जहाँ से फलता–फूलता है
फैलता है वर्णवाद पूरे भारत में
वर्णवाद जो लहूलुहान करता है
पल पल भारत की आत्मा को !

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