स्तब्ध हूँ !
-मंजुल भारद्वाज
क्या महिला?क्या पुरुष?
सब शरीर हैं
सब सत्ताधीश है
कुर्सी के लिए जमीर बेचकर
सत्ता की गुलामी में मशगूल हैं
बड़ी आस थी
सालों से बड़ा मान था
उनका बड़ा सम्मान था
शायद वो ‘स्वराज’ थी
रक्षा करने का दायित्व
निर्मल ‘ह्रदय’ कब कठोर हो गया
अधिकारों के लिए
सत्ताधीशों की नींद उड़ाने
वाली वो मेनका थी
लाडलियों की आवाज़ बनकर
चहकने वाली वो ‘किरण’
अब संसद की चौखट पर
मुरझा गयी!
एक जुमलेबाज़ बहेलिये ने
भारतीय माताओं के ज़मीर को
मारकर उन्हें सिर्फ़ शरीर बना दिया
स्तब्ध हूँ !
कठुआ से उन्नाव के कोहराम
की चीखों से,
न्याय मांगती रूहों से
और सत्ताधीश मौन महिलाओं से!
स्तब्ध हूँ !
....
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