फिर यह सभ्यता क्या है?
-मंजुल भारद्वाज
लोग जश्न मना रहे हैं
ढोल ताशे बज रहे हैं
मेरे चारों ओर सन्नाटा पसरा है
मैं हैरान हूँ
अपनी मौत की शोभा यात्रा में
आखिर लोग इतने खुश कैसे हैं?
कैसे ज़मीं का एक टुकड़ा
देश बन जाता है
जिसको बचाने के लिए
लोग जान देते हैं
पर हर रोज़
उस टुकड़े में रहने वाले लोग
आपस में एक दूसरे को लूटते हैं
नोचते खसोटते हैं
एक दूसरे की जान लेते रहते हैं
उलझन सुलझती नहीं
आखिर देश का मतलब
ज़मीं का टुकड़ा है
या उसमें रहने वाले लोग?
सच झूठ की लुका छिपी
धूप छाँव सी चलती रहती है
परछाई की तरह घटती बढ़ती रहती है
एक शरीर है
जिसका नित्यकर्म अटल है
जिसका एक ही सच है
एक ही ईमान है
एक ही ज़मीर है
वो है रोटी
फिर यह सभ्यता क्या
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