Friday, February 24, 2023

अँधेरा ... -मंजुल भारद्वाज

 अँधेरा ...

-मंजुल भारद्वाज
अँधेरा ...  -मंजुल भारद्वाज


मस्तिष्क की कोशिकाओं से 
बाहर निकलती तरंगें 
अपनी अभिव्यक्ति के लिए 
उपयुक्त अर्थ सम्मत 
शब्द खोज रही हैं 
शब्द छिंटक कर बिखर रहे हैं 
टूट रहे हैं 
अपना अर्थ खो रहे हैं 
तरंगें और तीव्र हो रही हैं 
आवेग बढ़ रहा है 
जैसे दिमाग फट जायेगा 
जो घट रहा है 
जो चल रहा है 
मनुष्य शब्दों का अर्थ खो रहा है 
दरअसल मनुष्य का शरीर
बिना सिर के चल रहा है 
द्वंद्व तीव्र है 
बिना सिर की मनुष्य देह को 
कैसे शब्दों से जोडें 
कैसे मरे हुए ज़मीर को जगाएं?
कैसे इन सिर रहित धडों को बताएं 
तुम मनुष्य हो 
कीड़ नाल नहीं हो 
जिसे चुटकी भर आटे
चीनी या चावल के दानों से 
नियंत्रित और संचालित किया जाए 
नसें फट रही हैं 
कल्पना बिजली सी कौंध रही है 
गर्जना हो रही है 
विध्वंस के काले बादल 
घिर आयें हैं
दबोच रहे हैं 
मानव होने के स्वर को 
चेतना को 
रौंद रहे हैं विचार को 
विवेक को 
बचा है सिर्फ़ मवाद 
कीचड़ ,कीचड़ सिर्फ़ कीचड़ 
बिना सिर धड 
कीचड़ में सने अमृतकाल मना रहे हैं 
भारत लहूलुहान हो रहा है 
भारत माता की अस्मिता को 
बिना सिर वाले धड़ नोच रहे हैं 
अस्मिता नोचने वाले 
भारत माता की जय बोल रहे हैं 
जय बोलने वाले भारत माता को नोच रहे हैं 
भांड इसका लाइव टेलीकास्ट कर हैं 
बिना सिर के धड़
अपने ड्राइंग रूम में 
हिन्दू राष्ट्र का सपना साकार होते देख
खुश हो रहे हैं 
एक एक साँस को तरसने वाले 
बस राम मन्दिर के उद्घाटन का इंतज़ार कर रहे हैं 
संविधान नाम की एक किताब 
कीचड़ में फेंक दी गई है 
उस कीचड़ में कमल खिल रहा है 
गरीब हिन्दू राष्ट्र में कमल पर बैठी 
लक्ष्मी मुस्कुरा रही हैं 
राम मन्दिर के बाहर करोड़ों 
भूखी नंगी स्त्री देह 
बच्चे ,बूढ़े,युवा अपना कंकाल लिए 
एक एक निवाले के लिए 
राम नाम जप रहा है 
कमल पर बैठी लक्ष्मी मुस्कुरा रही है 
भोंगे से कान फाडू आवाज़ आ रही है 
भाइयों बहनों हम विश्व गुरु बन गए हैं ...
कंकाल देह मर रही हैं 
कमल उग रहा है 
भाषण चल रहा है 
मस्तिष्क की नसें फट गई हैं ...
चारों ओर शोर ही शोर है 
अँधेरा ही अँधेरा है 
अँधेरा है ....
कहीं एक चराग जलने की 
उम्मीद लिए ...

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