एक सीप सा मैं !
- मंजुल भारद्वाज
.
मैं एक सीप सा
तिरी एक बूंद मोहब्बत की आस लिए
अपने भीतर के
महासागर को पार कर
तिरी आँखों के समन्दर में डूब गया हूँ !
अथाह है तिरी आँखों की गहराई
कितने भंवर उठते हैं तिरी
आँखों के महासागर में
आँखों में बसे मुसाफ़िर को
पलको से बूंद सा
साहिल पे छोड़ जाते हैं !
तुझे ढूंढते – ढूंढते
तेरे साहिल की पनाह में
विरह अग्नि में तपता हुआ
पर्वत सा अटल मैं
चाहत की लहरों पर तैरता रहूंगा ताउम्र
तिरी एक बूंद मोहब्बत के लिए !
No comments:
Post a Comment