प्रतिरोध
- मंजुल भारद्वाज
प्रतिरोध सृजन है
सृजन का बीजमन्त्र है
बिना प्रतिरोध के सृजन नहीं हो सकता
अपने आवरण को बिना फाड़े
बीज अंकुरित नहीं हो सकता
बिना प्रतिरोध के सृजन नहीं हो सकता
उत्क्रांति सृजन प्रकिया का
वक्त के चक्र पर चलने वाला
अनंत आन्दोलन है
जो मनुष्य के पहले
और बाद भी रहेगा
..आदि से अनंत तक ...
मनुष्य या प्राणी अपनी ‘जननी’ का
गर्भ फाड़ कर बाहर आते हैं
अपनी जननी के शरीर से
बगावत कर अपनी माँ के
गर्भाशय में अपने शरीर के
आकार के लिए ‘संघर्ष’ कर
जगह बनाते हैं अपने प्रतिरोध से
‘गर्भाशय’ को सृजन की प्रयोगशाला बनाते हैं
जननी के शरीर से अपने शरीर के
होने का नाम ही ‘जन्म’ है
प्रसूति उसी प्रतिरोध का नाम है
सृजनकार की सृजन प्रतिबद्धता
दृष्टि , समग्रता तय करती है
सत्ता’ भक्ति या प्रतिरोध प्रवृति
वो अपने ‘सृजन’ से मनुष्य को
‘जंगली’ पशु की गुहा से निकालकर
विचारों की संकीर्णता को तोड़कर
‘वर्चस्ववाद’ के रसातल से निकाल
मनुष्य बनने के लिए उत्प्रेरित करें
सामाजिक, आर्थिक,सांस्कृतिक,राजनैतिक
आयामों को अपने सृजन प्रतिरोध से भेदकर
नयी व्यवस्था का निर्माण करे
सड़ती ‘व्यवस्था’ को वैचारिक परिवर्तन से
जड़ता और अराजकता के ‘चक्रव्यूहों’ को
अपने ‘सृजन’ से भेदकर सृजनकार
सृजन प्रक्रिया के प्रतिरोध से
अपनी जड़ता को स्वयं ‘तोड़ता’ रहे
अनंत काल तक....!
...
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