Monday, December 26, 2022

स्पर्श - मंजुल भारद्वाज

स्पर्श

- मंजुल भारद्वाज

स्पर्श  - मंजुल भारद्वाज


प्रकृति कैसे अपने आप को

हमारे अंदर स्पंदित करती है

कैसे मनुष्य के अंदर

स्वयं का सृजन करती है

जिस व्यक्ति में प्रकृति ज़िंदा है

बस वही व्यक्ति ज़िंदा है

जिसके अंदर प्रकृति मर जाती है

वो शरीर सिर्फ़ ज़िंदा लाश होता है

ढोता हुआ अपनी मृत देह को

आज समाज विकार से अभिशप्त है

प्रकृति का गला घोंटकर

विनाश,विध्वंस,प्रलय का सिरमौर है

ताक़त के गुरुर से कठोर हुआ

कठोर से दुष्ट,धृष्ट बनते हुए

अपनी कठोरतम निर्ममता में दरक रहा है

अणुबम,मिसाइल,टैंक से तबाही के

जश्न में डूबा

सर्वशक्तिमान मनुष्य समाज

अपनी सख्ती से

हर पल टुकड़े टुकड़े हो बिखर रहा है

सिर्फ़ वर्चस्ववाद के लिए

वो ताक़त से जीतना चाहता है

स्वयं को

कितना मूर्ख है मनुष्य

स्वयं को बाहरी ताक़त से जीतना चाहता है

जबकि स्वयं को जीतने के लिए

स्वयं को स्वयं से हारना होता है

स्वयं की कठोरता को

कोमलता से हारना होता है

निर्ममता को ममता

सख्ती को नरमाई

कड़वेपन को मृदुता

बेदर्दी को हमदर्दी से हारना होता है

नफ़रत को प्रेम से परास्त होना होता है

स्वयं को जीतने के लिए

अपनी तरंगों को स्पंदित करने के लिए

शरीर को रूह से मिलाने के लिए

मनुष्य शरीर में

प्राणी शरीर में

प्रकृति ने स्पर्श का

प्राकृतिक वरदान दिया है समस्त प्राणियों को

स्पर्श : स्पंदन,रूह,शरीर

शरीर में रूहानियत

स्पंदित करने की प्रक्रिया है स्पर्श!


#स्पर्श #मंजुलभारद्वाज 


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