प्रेम
- मंजुल भारद्वाज
प्रेम दृष्टि है
प्रेम सृष्टि है
प्रेम दर्शन है
व्यवहार यानी
शरीर की तपिश
काम में जलते बदन
जिस झरने में स्नान कर
पवित्र, शीतल हो
सृजन साधना करते हैं
वो प्रपात है प्रेम
माटी के चोले को
इंसान बनाने वाली
चादर है प्रेम
पंचतत्व में इंसान
उपजाने वाली
संजीवनी है प्रेम
चाहत के पंखो पर
मन के समंदर में
उड़ती सहवास
सह अस्तित्व की
खुश्बू है प्रेम
भोग में डूबती
लालसा विलासता
शरीर की निरर्थक क्रिया को
राह दिखाता दर्पण है प्रेम
एक अनेक
अनेक एक
विविध के एकाकार
होने की शाश्वत
प्रकिया है प्रेम !
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