ख़ाक उड़ती रहती है!
-मंजुल भारद्वाज
इश्क़ समंदर
एक कतरे में
सदियों का खुमार
बेशुमार तूफानों को
अपनी आग़ोश में लिए
ज़माने के दस्तूर के खिलाफ़
धड़कता है सीने में सांस बनकर
रक्तचाप अंग को अपनी मोहब्बत से
दिल बनाता है इश्क़
अरमानों की आँधियों में उछलता
अपने रास्ते में आने वाले बवंडरों को
उड़ा ले जाता है इश्क़
अपनी ही बेख़ुदी की चादर में लिपटा
सृजन का झरना है इश्क़
होले से वक्त सरकता है
करवट बदलता है तो
इश्क़ भी आज़ाद होने की
मोहलत मांगता है
मोह लेने की लत
जुड़ते बिछड़ते झूलती है
समर्पण के झूले में
साँसों के अनुलोम विलोम की मानिंद
समय होने पर
प्राण शरीर त्याग मुक्त होते हैं
छोड़ देते हैं शरीर को
पंचतत्व में विलीन होने के लिए
आग़ जो कभी सीने में धधकती थी
प्राण बनकर
वही जलाकर ख़ाक कर देती है
प्राण त्यागने पर
बस ख़ाक उड़ती रहती है
दास्तान-ए-इश्क़ की
स्मृतियों में
सदियों तक ...
...
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