Monday, July 22, 2019

रंग दृष्टि रोपित करो - मंजुल भारद्वाज

रंग दृष्टि रोपित करो 
-मंजुल भारद्वाज

तुम लिखते रहोगे 
वो सिक्कों की टकसाल पर 
‘रंग नुमाइश’ करते रहेगें

तुम गली,गाँव ,नुक्कड़ 
क़स्बा ,शहर ,देश,विदेश 
रंग अंकुर बोते रहोगे 
ये ‘सत्ता के दलाल’
कहेगें भाई मैंने अभी तक 
आपका ‘रंगकर्म’ देखा नहीं 
दुस्साहस इनका इतना की 
प्रकृति को शर्म आये 
‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’
कुतर्क इनका सब कह जाए 
मोर तो जंगल में ही नाचता है 
इनके बेडरूम में जो नाचेगा 
वो ‘मोर’ नहीं हो सकता 
जैसे दरबारी नुमाइश 
रंगकर्म नहीं होता !

तुम सरोकारी,सार्थक 
रंग अलख जगाते रहो 
ये सत्ता पोषित नाट्य समारोह में 
तलवे चाटते रहेंगें

ये वही कौम है जो 
रक्तपिपासु है,शोषकों की वफ़ादार है 
जब देश जलता है 
नीरो बांसुरी बजाता है 
तब ये दरबारी साजिंदें 
उस राग़ को गाते बजाते हैं

तुम रंग धर्म निभाते रहो 
ये रंग ‘संकल्पनाओं’ का 
दरबारों में चीरहरण करते हुए 
‘अट्हास’.... करते रहेगें

तुम इनमें ‘संवाद’ की 
सम्भावना खोजते रहोगे 
ये अपने दम्भ और अहंकार में 
तुम्हारे होने को झुठलाते रहेगें

कहीं सत्ताधीश और नुमाइशी चकाचौंध
तुम्हारा हौंसला ना डगमगा दे 
इसलिए याद रखो 
किसी भी काल में, किसी भी युग में 
अंततः जनता सत्ताधिशों पर विजयी हुई है 
इसलिए इनको खारिज़ करो 
नाचते गाते जिस्मों में 
नुमाइश ‘शिल्प’ ढूंढने की बजाए 
‘रंग दृष्टि’ खोजो
रंग दृष्टि रोपित करो !
....

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