तिनका तिनका
-मंजुल भारद्वाज
जब पैदा करने वाला
अपनी ही संतान को
गोश्त समझ नोचता है
आत्मा बिलख उठती है
जब संस्कारों के ठेकेदार
मासूमों को नोच
सड़क पर फैंक देते हैं
संस्कृति तार तार होती है
जब पारिवारिक हिंसा
शरीर,मन और विचार को
लील देती है
समाज का पाखंड चीखता है
जब बचपन हर मोड़ पर लुटता है
तब कोई धर्म उन्हें नहीं अपनाता
सिर्फ़ संविधान उन्हें इंसान मानता है
हक और अधिकार नवाजता है
विखंडित अस्मिता
हिंसाग्रस्त देह
पराजित मनोबल
भयभीत रूह को
उड़ान भरने का मौका देता है
जीने का मकसद देता है
धरती पर अस्तित्व दे
आसमान दिखाता है
जब कला से रूह का तिनका तिनका
फिर से अपने होने का
एक घर बनाता है
तब एक कलाकार हर्ष से
बिना आसुंओं के रोता है
कला की इंसानी
सार्थकता को जीते हुए!
No comments:
Post a Comment